ग़ज़ल/बेवज़ह फ़र्क पाल रक्खा है
हर इक़ ने कोई ना कोई मर्ज़ पाल रक्खा है
अन्दर ही अन्दर कोई खुदगर्ज़ पाल रक्खा है
वफ़ाए, इल्तिज़ाए तो कहने की बातें हैं सब
हर इक़ ने अपने सीने में दर्द पाल रक्खा है
आदमियत की तो यहाँ बात कोई करता नहीं
ज़ेहन में मन्दिर, मस्ज़िद, चर्च पाल रक्खा है
दुनियां स्वर्ग भी है, देखों ग़र बराबर सब कुछ
जानें क्यूं लोगों ने मज़हबी नर्क पाल रक्खा है
ज़रा दहल जाए ज़मीं, नज़रे आसमां हो जाएं
फ़िर भी दुनियाँ ने बेतुका ख़र्च पाल रक्खा है
जानें कितनें आए सूरमा कितनें आकर चले गए
कोई भी ना जुदा बेवज़ह का फ़र्क पाल रक्खा है
जहाँ चमन के फूल होने थे, वहाँ बारूद इकट्ठा है
हाय ! क्यूं इंसानों ने आँखों में हर्ज पाल रक्खा है
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___अजय “अग्यार