ग़ज़ल:- खुद पर ही शर्मिंदा हैं..
ख़ुद पर ही शर्मिंदा हैं।
आज तलक क्यों जिंदा हैं।।
कालख मुहँ पर पोत रखी।
फ़िर भी हम ताबिंदा हैं।।
ठौर-ठिकाना पता नहीं।
हम दिल के वाशिंदा हैं।।
भूल न जाना हमको भी।
मरे नहीं पाइंदा हैं।।
कर्ता-धर्ता एक ख़ुदा
हम तो बस कारिंदा हैं।।
ख़त्म हुआ खेल कल्प का।
‘कल्प’ नही अरविंदा हैं।।
अरविंद राजपूत ‘कल्प’
फ़ेलुनx7
कारिंदा- प्रतिनिधि
ताबिन्दा- चमकदार
पाइंदा- सदैव
वाशिंदा- मूलनिवासी
आइंदा- भविष्य