ग़ज़ल ”….”पंजाबी हो गई हैं ”
शर्म क़सम से गुलाबी हो गई हैं
नियत भी अब पंजाबी हो गई हैं
लहर बहती जहाँ मुहब्बत वाली
‘ब’ तेज़ाबी हिज़ाबी हो गई हैं
पुराने मित्र मिलें बिछड़े हुए मगर
शक्ले उनकी रुआबी हो गई हैं
तुम दिख रहे नहीं आजकल हमदम
निगाहें अब शराबी हो गई हैं
एक ज़माना व खामोशी बयां थीं
हुआ क्या बेहिसाबी हो गई हैं
बच्चे तो हैं बच्चे ,ईश्क बिमारी
उम्र हर इंकलाबी हो गई हैं
गुजरती ज़िंद अंधेरे लिये थी
व ‘रंगत माहताबी हो गई हैं
छत पर गये जुमे रात जब बंटी
फिज़ाऐं आफताबी हो गई हैं
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रजिंदर सिंह छाबड़ा