ग़ज़ल/दुनियादारी बदल रही है
इक ही ज़िन्दगी में कितनी ज़िन्दगी पल रही हैं
बाहर फूल खिले हैं मुझमें अंदर चिता सी जल रही हैं
पत्थर सा पड़ा है ज़मीन पे देखों मेरे दिल का टुकड़ा
इक मैं ही ना बदला अभी ये दुनियादारी बदल रही है
ये वक़्त की मेहरबानी है कि सबकुछ अभी चाहता है
जबकि रूह सुकूँ चाहती है मेरी तो कमी खल रही है
कितने आगे निकल गए मेरे अपने मैं कितना पीछे रह गया
हवा भी हँस रही है मुझें साँसे देकर इतराके निकल रही है
भर तो आयी हैं ये आँखें मेरी मगर आज छलकी नहीं
चलो अच्छा है नये सवेरे के लिए ये शाम भी ढल रही है
~अजय “अग्यार