ग़ज़ल/तेरी तलब है कई आरजुओं की तरहा
हवाएँ कंघी करती हैं मेरे बालों में तेरे बाजुओं की तरहा
तेरी तलब इक आरज़ू है मेरी कई आरजुओं की तरहा
महबूबा मुझे तेरी तस्वीर की ज़रूरत ही नहीं पड़ती अब
कि तू मुझमें बस गयी है जैसे खुशबुओं की तरहा
तेरी सादगी के सदके में ग़ज़ल यूँ ही बन जाती है
दिन लगते है तेरे चेहरे की तरहा रातें जैसे गेसुओं की तरहा
तू लिबास बदले तो लगता है जैसे मौसम ने करवट ली हो
पीले में सरसों के खेत सी ,नीले लिबास में लगती है तू जल परियों की तरहा
कहाँ ज़ोर चलता है इस दिल पर जब तू हँस देती है रहबर
तू कभी लगती है बिजलियों की तरहा कभी उड़ते पंछियों की तरहा
किसी चमन में खिलतें फूलों को देखकर अक्सर रुक जाता हूँ मैं
सकते में यूँ ही कि कलियां हैं तेरी तरहा या तू है कलियों की तरहा
तेरे गालों के भंवर में फंसकर रह गयी हैं मेरी मज़बूर नज़रें
तेरी काज़ल से भरी आँखें लगती हैं जैसे काली काली घटाओं की तरहा
हाय क्या कहें तेरी हर अदा है हीर की तरहा कि जूलियट की तरहा
मैं भी बहक गया इस क़दर राँझे की तरहा किसी रोमियो की तरहा
~अजय “अग्यार