ग़ज़ल:- छलते हो बारबार, मुझे यार बनके तुम
छलते हो बारबार, मुझे यार बनके तुम।
काँटे ही तो बिछाते हो गुलज़ार बनके तुम।।
व्यापार ग़म का करते हो गमख़्वार बनके तुम।
बेदर्दी दर्द देते हो उपचार बनके तुम।।
कब तक डसोगे साँप, बने आस्तीन के।
मिलना कभी तो शिव का भी उपहार बनके तुम।।
छलकाते प्यार तुम, जुबा से दिल मे ख़ार है।
जीतों के ही गले में, पड़े हार बनके तुम।।
नेमत ख़ुदा की तुमपे जो सीरी जुबान दी।
कड़वे न बोल बोलिए फ़नकार बनके तुम।।
दाता समझते खुद को,तो दोनों ज़हान का।
क्यों छीनते निवाले, तलबगार बनके तुम।।
वादा खिलाफी आपके किरदार में शुमार।
आते सदा हो सामने मक़्कार बनके तुम।।
है शौक़ सुर्खियों का, इस्तिहार से बचो।
रद्दी में बैंचे जाओगे, अखबार बनके तुम।।
मानो सलाह मेरी चलो सच की राह पर।
सदियों तलक रहोगे, निराकार बनके तुम।।
क़ातिल गुलों के नादां, समझ ‘कल्प’ आग है।
काटोगे कैसे आग को तलबार बनके तुम।।
✍?? अरविंद राजपूत ‘कल्प’?✍?
बह्र- मजारिअ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
वज़न-मफ़ऊल फायलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
अरकान- 221. 2121. 1221. 212