ग़ज़ल- छटेगी रात काली…
ग़ज़ल- छटेगी रात काली…
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छटेगी रात काली और फिर होगा सवेरा भी।
हँसो लेकिन ज़माना एक दिन आयेगा मेरा भी।।
भले ग़म ने तुझे चारों तरफ से घेर रक्खा है,
जरा सूरज निकलने दो छटेगा ये अँधेरा भी।
नहीं रावण सिकंदर कंस का घर-बार बच पाया,
कहीं तुमको न ले डूबे सुनों अभिमान तेरा भी।
मेरी हिम्मत के आगे एक पल भी टिक नहीं सकता,
मुसीबत का कोई पिंजरा किसी दुश्मन का घेरा भी।
बहुत बेशर्म बन्दा है निवाला छीन लेता है,
उसी की ज़द में है अब तो ग़रीबों का बसेरा भी।
न जाने क्या ज़हन में चल रहा था कल तलक उसके,
मिटाया भी बहुत उसने मेरा चेहरा उकेरा भी।
यहाँ अपराधियों के हौसले इतनी बुलंदी पर,
नहीं अपराध ही करते बना लेते हैं डेरा भी।
निराशा छोड़ दो “आकाश” खुल के सीख लो जीना,
ख़िज़ां को झेलकर पौधों ने खुश्बू को बिखेरा भी।
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 02/08/2019