ग़ज़ल/कुछ पाखंडी लोग,लोगों की जाति पूछते हैं
हर आदमी है दिया फ़िर भी बाती पूछतें हैं
कुछ पाखंडी लोग,लोगों की जाति पूछते हैं
आसमां ज़मीं की नहीं पूछता,हवा पानी की
पर ये ढोंगी ज़ुबाँ से काटकर ,दराँती पूछते हैं
हंस लेते हैं साथ में औऱ गोश्त भी खा लेते हैं
बातों ही बातों में मेरा गौत्र मेरे साथी पूछते हैं
हाय !तह-दर-तह सी जाति में जाति विलीन है
इस बीमारी के दँगें में भी उत्पाती जाति पूछते हैं
ये मज़हब के ठेकेदार ख़ुदा को बदनाम करते हैं
हैं इंसानियत में बौने फ़िर भी कद-काठी पूछते हैं
जब अपने ही बुझायें चराग़,घर में उजाला कैसे हो
सब बने हैं इक़ ही माटी के ,फ़िर भी माटी पूछते हैं
जाति हाय री जाति !तू कम्बख़्त क्यूं नहीं जाती
मेरा मुल्क़ है तुझसे विरां,विदेशों से पाती पूछते हैं
__अजय “अग्यार