ग़ज़ल कहूँ तो मैं असद
ग़ज़ल कहूँ तो मैं असद, मुझमें बसते मीर
दोहा जब कहने लगूँ, मुझमें संत कबीर
दोहे के अनुसार मैं अपने जीवन के भीतर तीन व्यक्तित्वों को और ढो रहा हूँ। मुझमें खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर भी हैं। उर्दू अदब के बाकमाल शा’इर मिर्ज़ा ग़ालिब भी हैं। तो दोहा सृजन करते वक़्त मैं कबीर की शक्ल भी इख़्तियार कर लेता हूँ। कुछ विद्वान हँसते हैं कि साहब अपने मुँह मिट्ठू बने हैं। आत्मप्रशंसा के शिकार हैं। पचास प्रतिशत हो सकता है वो लोग सही हों क्योंकि सौ फ़ीसदी की मान्यता हो ऐसी मांग मेरी तरफ़ से भी नहीं है। बहरहाल मेरी बात की पुष्टि के लिए मेरे ही दो शेर देखें:—
शेर कहने का सलीक़ा पा गए
‘मीर’ का दीवान जब हम पर खुला
वो ‘असद मिर्ज़ा’ मुझे सोने न दे
ख़्वाब में दीवान था अक्सर खुला
पहले शेर का अभिप्राय: यह है कि मीर के ग़ज़ल संग्रह को पढ़कर ख़ाकसार को ग़ज़ल कहने के हुनर में महारत हांसिल हुई है। जबकि दूसरे शेर में मिर्ज़ा ग़ालिब का ज़िक्र है जिसके मुताबिक नींद में भी ग़ालिब की ग़ज़लों का असर बरकरार है। ये बातें सौ फ़ीसदी स्वीकार की जा सकती हैं।
वैसे भी कई बार जब मैं मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन में झांकता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे मध्य काफ़ी समानताएँ हैं। हम दोनों साहित्य के क्षेत्र के व्यक्ति हैं। हम दोनों स्वाभिमानी हैं। रूपये-पैसे के मामले में हम दोनों फ़क़ीर हैं। उनका स्वभाव भी हास्य-व्यंग्य था, मेरी फितरत भी विनोदी है।
कबीर के सन्दर्भ में मैंने कुछ दोहों में कहा है:—
युग बदले, राजा गए, गए अनेकों वीर
अजर-अमर है आज भी, लेकिन संत कबीर
ध्वज वाहक मैं शब्द का, हरूँ हिया की पीर
ऊँचे सुर में गा रहा, मुझमे संत कबीर
कबीर होना तो महावीर के लिए आसान नहीं है। मगर एक दोहाकार के रूप में कबीर से गुफ़्तगू कर लिया करता हूँ। ये सब मेरे प्रेरणा श्रोत हैं। आदर्श हैं। पूजनीय हैं। ये न होते तो शायद मैं भी न समझ पाता कविता क्या है? उसका छन्दों में निर्वाह कैसे हो? तभी तो अपने गीत “कविता की नदिया” में मैं यह कहने का दुस्साहस जुटा पाया:—
मीरो-ग़ालिब हों या फिर
हों तुलसी-सूर-कबीरा
प्रेम से उपजे हैं सारे
कहते संत “महावीरा”
बैर भूलकर आपसे में
जी लो सारे पल-पल-पल-पल…….
शब्द कहें तू न रुक भइया
कदम बढ़ाकर चल-चल-चल-चल
कविता की नदिया बहती है
करती जाए कल-कल-कल-कल
कविता की नदिया बहती है……….
हर अदीब, साहित्यकार एक दूसरे के भीतर समाया हुआ है। एक-दूसरे की रचनाओं के ज्ञान को आत्मसात करके नया सृजन कर पाया है। सब प्रेम और मानवता की खुराक पाकर ही स्नेह और सम्मान के साथ फले-फूले हैं। यही कविता और शब्दों की नदी अनन्त काल से वर्तमान काल तक यूँ ही प्रवाहित हो रही है। इस गीत में आगे की पंक्तियाँ भी देखें:—
काग़ज़ पर होती है खेती
हर भाषा के शब्दों की
उच्चारण हों शुद्ध यदि तो
शान बढ़े फिर अर्थों की
हिंदी-उर्दू के वृक्षों से
तोड़ रहे सब फल-फल-फल-फल
कविता की नदिया बहती है……….
अ आ इ ई के अक्षर हों
या फिर अलिफ़ बे पे ते
ए बी सी डी भी सीखेंगे
सब होनहार हैं बच्चे
उपलब्ध नेट पे आज
समस्याओं के हल-हल-हल-हल
कविता की नदिया बहती है……….
•••