ग़ज़ल:- कलकल छलछल अविचल सरिता बहती है…
मुसलसल ग़ज़ल:- सरिता-साहिल और सागर
कलकल छलछल अविचल सरिता बहती है।
साहिल की रुकना मजबूरी रहती है।।
एक कदम ना साथ चले साहिल उसके।
दर्द जुदाई सरिता घटघट सहती है।।
पर्वत समतल चट्टानें साहिल बदले।
मजबूरन सागर की बाँहें गहती है।।
अश्क़ विरह की जलधारा सागर से मिल।
सागर को खारा कर खारा कहती है।।
प्यास बुझाती जीवन देती औरों को।
घुट घुट कर दम तोड़े प्यासी रहती है।।
भेदभाव बिन जीव जगत को वर देती।
मर्यादित हो जीवन पथ पर बहती है।।
‘कल्प’ सदा अविचल अनुशासित ही रहना।
अनुभव घाट घाट के सरिता कहती है।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’