ग़ज़ल/इश्क़ में ना ढहाये अपना घर कोई
मिले चाहें शैदाई राह में या सौदागर कोई
सच्चा सौदा करे ,ना सताये उम्रभर कोई
हूँ शीशा मैं, लेक़िन पत्थरों से नहीं डरता
मुझें आज़मा ले हाथ में लेकर पत्थर कोई
बैमुरौवती से भारी हो गया अब ज़िगर मेरा
इंसाफ़ की तराज़ू से तौले मेरा ज़िगर कोई
अब कहाँ हैं वो मौसमें बहारा चश्म-ए-नाज़
अरे! खुदगर्ज़ी में फ़िर रहा दरबदर हर कोई
इश्कबाज़ी में आरजुओं का मलबा मलबा
है गुज़ारिश कि इश्क में ना ढहाये घर कोई
~~अजय “अग्यार