ग़ज़ल:- अपने हाथों की लकीरें, खुद मिटा डाली मैंने
अपने हाथों की लकीरें, खुद मिटा डाली सभी।
वक़्त के हाथों से जंजीरें, हटा डाली सभी।।
जीतना मुझको नही, अपनो की जिसमे हार हो।
ख्वाहिशें अब जीतने की, भी मिटा डाली सभी।।
हुक्मरानो ने सदा बाँटी है अब तक नफ़रतें।
नफ़रतों को अब तो जड़ से ही पटा डाली सभी।।
कर बगावत आंधियों से अब मशालें तो जला।
अब तो हस्ती आंधियो की, भी मिटा डाली सभी।।
हिंदू मुस्लिम में न बांटो, देश को धर्मांध बन।
‘कल्प’ अब धर्मों की बस्ती, भी मिटा डाली सभी।।
✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’
वज़्न- 2122 2122 2122 212