ग़ज़ल।यकीं मानो मुहब्बत की सभी क़ीमत चुकाते है ।
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यकीं मानो मुहब्बत की सभी क़ीमत चुकाते हैं ।
नफ़ासत का ज़ख़म पाकर ग़मों मे मुस्कुराते है ।
सुना होगा दिवानों के पुराने क़हक़हे तुमने ।
हमारे दर्द के नग़में सुनो हम भी सुनाते हैं ।
सुबह सूरज के ही सँग मे बढ़ी तनहाइयाँ आती ।
अंधेरों मे जला दिल को अश्क़ों से बुझाते हैं ।
शमा भर तो दग़ा देती रही खामोशियाँ मेरी ।
हुई जो रात तारों से वो आँसू टिमटिमाते है ।
अंधेरा देखना हो तो हमारे घर चले आना ।
चराग़ों रौशनी को ख़ुद तरसते हैं बुझाते हैं ।
वही ग़म है ,वही गर्दिश, वही तन्हा ख़फ़ाई फ़िर ।
वही मंज़र ग़मो के घर मेरे मजलिस लगाते है ।
गमों के ज़लज़लों मे है घरौंदा प्यार का रकमिश ।
शमा होते ढहा करता सुबह फिर से बनाते हैं ।
✍ #रकमिश सुल्तानपुरी