ग़ज़ल।मुझे हर दर्द मालुम है दवा पाने नही निकला ।
================ग़ज़ल================
तनिक आया हूँ गर्दिश में हवा खाने नही निकला ।
ग़मो का लुफ़्त लेता हूँ वफ़ा पाने नही निकला ।
बड़े दिन बाद पाया हूँ दिवानों की कोई महफ़िल ।
दिवानापन उमड़ आया ज़फ़ा पाने नही निकला ।
झलक भर देख लेने से दिवाना मत समझ लेना ।
गुमानी कमसिनों की मै अदा पाने नही निकला ।
पुराने हो गये मसले मग़र हर जख़्म ताज़ा है ।
मुझे हर दर्द मालुम है दवा पाने नही निकला ।
नजऱ का तेज़ खंज़र वो छुपा है आज भी दिल में ।
तड़पता ऱोज दिल है पर मज़ा पाने नही निकला ।
मुज़रिम हूँ, दिवाना हूँ , बेगाना हूँ , आवारा हूँ ।
मारा हूँ मुक़द्दर का सजा पाने नही निकला ।
पता साहिल का लेने ख़ुद गमों के कारवां आते ।
मुहब्बत का मसीहा हूं ख़ुदा पाने नही निकला ।
चला आया हूँ ‘रकमिश’मैं लुटाने प्यार की दौलत ।
मुझे है दर्द की ख़्वाहिश नफ़ा पाने नही निकला ।
. @राम केश मिश्र