ग़ज़ल।बन गया पत्थर ज़माना ।
ग़ज़ल (बह्र रहित)
बन गया पत्थर ज़माना ।
दे रहा सबको यहाँ ख़ुशियों का इक घर ज़माना ।
बात जब आयी मिरी तो बन गया पत्थर ज़माना ।।
मैं निखालिश प्यार पर कर भरोसा चल रहा था ।
हँस रहा दिल पर मेरे जख़्म को देकर ज़माना ।।
टूट तो वैसे गया हूं दर्द -ऐ -दिल हालात से मैं ।
अब चुभोता जा रहा क्यो बेवज़ह नस्तर ज़माना ।।
अश्क़ आंखों मे नही फ़िर भी कुरेदे जा रहा हूं ।
शक़ उसे है आज़माता जख़्म पर खंज़र ज़माना ।।
लड़ रहा तन्हाइयों से इश्क़ का मारा मुअक्किल ।
हो गया ख़ामोश मसलन देखता मंजर ज़माना ।।
कर रहा बेशक़ गुज़ारिश रूह मेरी बख़्स दे अब ।
जबकि पीछे पड़ गया है हाथ ही धोकर ज़माना ।।
मन्नतें माँगी थी रकमिश’ उम्र भर बस प्यार की ।
कर दिया बदनाम घायल इश्क़ को लेकर ज़माना ।
©राम केश मिश्र