ग़ाफ़िल की सुह्बतों का असर भी तो कम नहीं
रुख़ यूँ सँवारने का हुनर भी तो कम नहीं।
आरिज़ पे आँसुओं का गुहर भी तो कम नहीं।।
सैलाब और प्यास नमू एक ही जगह,
ऐसी ख़ुसूसियत-ए-नज़र भी तो कम नहीं।
एक क़त्आ-
रुस्वा न क्यूँ हो इश्क़ ज़माने में तू बता!
उल्फ़त में तेरी, जी का ज़रर भी तो कम नहीं।
मरहूम मेरे इश्क़ की, मानिन्दे रूह यार!
आवारा घूमती सी ख़बर भी तो कम नहीं।।
मक़्ता सहित दो शे’र और-
शीशा-ए-दिल का शग़्ल अगर टूटना है तो
इक संगज़ार से ये शहर भी तो कम नहीं।
नश्तर चला है दिल को मगर क्या हुई ख़बर
ग़ाफ़िल की सुह्बतों का असर भी तो कम नहीं।।
(आरिज़=गाल, गुहर=गौहर यानी मोती का बहुवचन, ख़ुसूसियत-ए-नज़र=नज़र की ख़ासियत, ज़रर=नुक़सान, संगज़ार=पत्थरों का बाग़ अर्थात पत्थरों से अटी जगह)
-‘ग़ाफ़िल’