ग़ालिब की ज़ुबानी
~* गज़ल *~
ग़ालिब की ज़ुबानी
सोचूँ ! क्यूँ न कह जाऊं, मैं आज अपनी कहानी
ज़ख्मों को लपेट लब्ज़ों में, कहूँ ग़ालिब की ज़ुबानी।
शराफ़त से कितनी, दिल को मेरे क़त्ले आम किया
बेदर्द ज़माने की दास्तां , आज तुमको है सुनानी।
बड़ी मासूम बड़ी नज़ाकत थी , उसकी अदाओं में
कहती थी वो मुझसे, है मेरी , बस मेरी ही दीवानी।
सब्ज़ बाग यूँ सजा दिये, उसने मेरे दिल के चमन में
चार दिन की चांदनी, हुई ख़त्म मुहब्बत की जवानी।
मुहब्बत के मयख़ाने में, डूबो दिया उसने मुझको
खुद तैर निकली बेवफ़ा, निकली वो कितनी सयानी।
हक़ीकत से भी ज़्यादा हसीं, खूबसूरत वादे थे उसके
सरका नकाब हुई बेपर्दा, बातें सारी निकली बेमानी।
दिल के टुकड़े सजाये बैठे, आज तक हम तश्तरी में
बस यही है दास्ताँ-ए-मोहब्बत, जो तुमको थी बतानी।
किरण पांचाल