ख़्वाबों की ख़ातिर
सोया हूँ ख्वाबों की ख़ातिर ,
मुझे नींद से न जगाना तुम।
आना हो जो मिलने मुझसे,
मेरे ख़्वाबों में आ जाना तुम।
यह दुनियाँ ,नही ककीक़त ।
यह दुनियाँ एक फ़साना है।
ठहरा नही यहाँ कभी कोई,
यहाँ तो आना और जाना है ।
ख़्वाबों की दुनियाँ ही,सच्ची झूँठी है ।
यह दुनियाँ तो, झूँठी सी सच्ची है ।
ख़्वाब में असल तस्सली होती हैं ।
इस दुनियाँ में ,तल्ख़ तस्सली होती है ।
ख़्वाबों में ही , हम हँस रो लेते ।
ख़्वाबों में हर बात बयां होती है ।
इस दुनियाँ में तो , उसकी मर्जी है ।
रोने हँसने की,उसकी खुदगर्ज़ी है।
यहाँ रोते हैं , उसकी मर्ज़ी से ,
हँसने में भी, उसकी खुदगर्ज़ी है ।
यहाँ जी न सकें जो ,जीते जी,
यहाँ मर कर वो, जिंदा रहते हैं।
इस जीते जी मरने से,मरकर जीने से,
ख़्वाबों की दुनियाँ ,कितनी अच्छी है।
मौत नही जहाँ दूर तलक ,
बस जिंदगी इनमें रहती हैं ।
खोया हूँ ख़्वाबों की ख़ातिर,
मुझे नींद से न जगाना तुम ।
….विवेक दुबे©..