ख़ूब -रू से सिर्फ मैं आँखें लड़ाता ही रहा…
ख़ूब -रू से सिर्फ मैं आँखें लड़ाता ही रहा।
ख़्वाब में उसको मैं बस अपना बनाता ही रहा।
वो बदलता ही रहा है काफ़िया सा इश्क़ में,
साथ उसका मैं रदीफ़ों सा निभाता ही रहा।
था नहीं जिसको जरा सा शायरी का इल्म भी,
मैं मुकम्मल सी ग़ज़ल उसको बताता ही रहा।
आसमाँ में चाँद भी शब भर अकेला था बहुत,
हाल दिल का मैं उसे शब भर सुनाता ही रहा।
हाथ में अपने लगा ले वो हिना बस मानकर,
धूल सा वो क्यों मुझे ऐसे उड़ाता ही रहा।
चल गया वो दिल की बस्ती से सितारे तोड़कर,
बस उजाले के लिए मैं दिल जलाता ही रहा।
मुफ़लिसी की दौर में रूठी बहारें मुझसे भी,
करके सज़दा बस उसे “पागल” मनाता ही रहा।