“ख़ुदी है कम्बख़्त खुदगर्ज़”
सुलझाए नहीं सुलझती है ज़िन्दगी बेग़ैरत क्या करें
ख़ुद ही है कम्बख़्त खुदगर्ज़ ,औरों पे हैरत क्या करें
वो बनके आयी घटा सावन की इक़ दफ़ा ज़िन्दगी में
अपना बनकर उसने की दगा, ग़ैरों से चाहत क्या करें
मेरी क़िस्मत ही दगाबाज़ है, पल पल धोखा देती रही
जब ख़ुदा को मंजूर नहीं ,किसी से शिकायत क्या करें
इक़ तरफ़ा इश्क़ में ही ऐसा होता है ऐसा होता है क्या
बहलाए नहीं बहलती है ये ज़िन्दगी , हिम्मत क्या करें
अब तो आदत सी हो चली है ,तन्हा वक़्त गुज़ारने की
अपनों पे इनायत की सज़ा है ,ग़ैरों पे इनायत क्या करें
___अजय “अग्यार