ख़ामोशियाँ
बड़ी लंबी जुबान की
होती है
ये ख़ामोशियाँ
शब्दों की
बैसाखियों के बिना ही
बहुत दूर तक
चली जाती हैं
कच्ची पक्की
अंजान पगडंडियों पर
निकल पड़ती हैं
मंजिल की ओर
अक्सर
सुलझा जाती हैं
उलझी मन की
गाँठों को
या फ़िर और
उलझा जाती हैं
गिरह के
रेशमी धागों को
ढुलक जाती हैं
कभी आँखों के
कोरों से
तो कभी
सरक आती हैं
होठों के
दबे किनारों से
धीरे धीरे
खोल जाती हैं ये
दिल के सारे राज़
आती है इन्हें
लिखावट
हर भाषा की
बस बाँचना पड़ता है
अहसासों की
पैनी नज़र से,,