ख़लिश
भीड़ में भी तनहा थी ,
सब कुछ था ,
परन्तु
न जाने क्यों ?
मन में एक बेचैनी सी थी ,
आँखों में नींद थी पर एक चुभन ,
हर पल सालता ,
न जाने क्या था ?
जो करवटें बदलने पर मजबूर करता ,
मेरे मन का उल्लास ,
न जाने किस गुमनामी में छिपता जा रहा था ,
कैसी खलिश थी ?
जो मुझे हर कहीं से तोड़ रही थी,
वो रौनकें फ़िज़ा बेनूर थी ,
वो “चाल में इनकी न राहत” खामोश थी।
तलाशती हैं मंज़िल आँखें मेरी,
वो ख़ुशी चाहती हैं ,
पर एक बेचैनी है ,
हर रोज़ सोचती आज नहीं ‘
पर बिखर सी गयी हूँ मैं,
वो कसाव , वो दृढ़ता दम तोड़ रही है,
वो कही-अनकही का हर झोंका ,
मुझे झकझोरने में पूर्ण समर्थ था।
वज़ूद को तलाशती हिरण्य आँखें,
ख़ामोशी का घूँट पी चुकी थीं।
कैसे बाँधूं वो स्थिर आसबाब ?
फिर से बुन सकूं अपना घरौंदा ,
बड़ी तमन्ना थी संजोने की ,
अब,
पल पल रिस रहा हर सपना ,
अपनी खोखली दावेदारी से,
कुछ पाना है तो बंधना होगा,
कैसा है ये लालच?
जो हर पल मुझे तरसाता ,
उसकी इतनी न बिसात है ,
कि वह मुझे बरसात बना देता ,
मुस्कराहट छीन लेता ,
मैं ये न थी ,
जिसको उस प्रबल प्रवाह ने न हिलाया ,
वह आज ,
हिलोरें ले रहा है।
सच है ,
अपनी बाँध अपनी बुनावट ,
इतनी ढीली न करो कि,
पाल ही खुल जाय ,
फिर नैया किनारे आने पर वक़्त लगता है ,
अतः हे मांझी ,
सही दिशा दो।