क़ज़ा के नाम पैगाम .. (गज़ल)
काश ! ये तकदीर मेहरबान हो जाये ,
एक पैगाम क़ज़ा का मेरे नाम आये .
जिंदगी अब ये हमसे ढोई नहीं जाती ,
हम इस बेमुरव्वत से अब तंग आ गए .
तोडना चाहती हूँ अनचाहे खुदगर्ज़ बंधन ,
खुदा से जो मेरी डोर बस एक बंध जाये .
यह वेह्शी दुनिया भी अच्छी नहीं लगती ,
इस जहन्नुम से भी आज़ादी मिल जाये .
अश्कों से दामन औ आहों से दिल भर चूका ,
धडकनों को क्यो न आराम दिया जाये .
भेजा है फिर से एक पैगाम क़ज़ा की और ,
इंतज़ार में है ‘अनु ‘ देखो कब जवाब आये ?