ॐ ॐ उच्चार
स्वर – स्वर की लय में लग रहें तार
गूंज – गूंज के बिखेरेगी दिव कली में
स्वप्निल में सज रही कई स्वप्नों की
बढ़ – बढ़ यहाँ , वहाँ होगी झंकृत मंजरी
लौट एक वक्त दिव्य ज्योति प्रज्वलित कर
ध्वनि लड़ी – लड़ी की खींच के क्षिति पार
बिखेर – बिखेर काव्य छन्द में स्वर ताल
अमरत्व है स्वं या भव में स्वर – ध्वनि – लय – गान
स्वर छिपा कहीं अब खोजूँ किस झुरमुटे में ?
धोएँ गगन अंचल भी , यह धरा किस खुशबू के ?
बढ़ चली वो किरणें , किस अनजान क्षितिज में ?
प्राची से नहीं मिल रही ये इंद्रधनुषीय विलीन संगम
फूल सजी यह केतन भी यहाँ , देखे फिर कौन दिव्य में ?
राह बटोरती इस घड़ी में , पर न मिली वो दूर जाती पन्थ के
यह कुंतल बिछी किस पट , अम्बर के , रही बिखेर , कबसे ?
दिवस – दिवस जगी फिर चली किस वसन्त या पतझर भला !
देखा यह कांति भी न लौट रही पन्थ के किनारे भव से
भूल रही या चली खलक छोड़ किस महफ़िल सजाने ?
घट – घट के कुन्तल नहीं मेघवर्ण – सी , चला किस ओर बरसाने !
यह धार बून्द – बून्द छोड़ , दिव्य ज्योति के ज्योतिर्मय लय
सूनी भव के अश्रु अश्रुपूर्ण , न दिवस के बीती राह
यह किस आरम्भ या इतिश्री भर रहे ॐ ॐ उच्चार
महोच्चार जाग्रत नहीं , तेज धार के , हो रहे वो शंखनाद
यह रण भी नहीं रणधीर जैसे… , जैसे स्वर साम्राज्ञी दीदी लता रणधीर