हक़ीक़त
हालाते हाज़िरा का तज़क़िरा एक खबरनवीस ने इस तरह पेश किया ,
गुज़िश्ता बरसों पहले जुल्मो तश़द्दुत की खबर का इस क़दर असर है ,
अवाम बेचैन कश्मकश के दौर से गुज़र रहा इंसाफ की गुहार बेअसर है ,
अभी तक जो खून सर्द पड़ गया था ,
अब उसमें उबाल आ रहा है ,
वतन के हर शहर, हर गली-मोहल्ले में
बवाल मचा रहा है ,
लाशों पर सियासत करने वाले फिरकापरस्त अनासिर
जोर शोरों से इंकलाब जगा रहे हैं ,
एक दोस्त को दूसरे दोस्त के खिलाफ भड़का रहे हैं ,.
कौमी यकज़हती के मायने को झुठलाने की
कोशिश कर रहे हैं ,
सियासतदाँ सियासत पर काबिज रहने का क्या कोई नया तरीका ईजाद कर रहे हैं ?
जो जुल्मो हालात के सताए मज़लूमों के आंसू पोंछने के नाटक का किरदार निभा रहे हैं ,
कोई इनसे ये पूछे इतने सालों से क्या नींद में सोए थे ?
उस वक्त क्यों नहीं ज़ालिमों के खिलाफ लामबंद होकर आवाज उठाए थे ?
अब अचानक ऐसा क्या कुछ हो गया ?
जिससे सालों से सोया इनका ज़मीर जाग गया ,
कहीं ये कोई नई सियासी फितरत तो नही है ?
जो पुराने जख़्मों को कुरेदकर अपने हक में चुनावी लहर पैदा करने की हक़ीक़त तो नही है ?