‘ हौसले का एहसास ‘
ओह ! कितने दर्द और निराशा में बीता पिछला एक साल , अंधकार की गहरी सुरंग लगता था कभी इस सुरंग से निकल ही नही पाऊँगीं । दो साल पहले का वो दिन बहुत अच्छा भी था और बहुत बुरा भी जब एस पी सर ने कहा ‘ बधाई हो शिवांगी आज से तुम एस आई रेलवे का पद संभाल रही हो ‘ कानों को जैसे यकीन ही नही हो रहा था । पुलिस में जाने का सपना
पदोन्नति के साथ साकार हो रहा था । रात की ट्रेन ( बरेली से देहरादून ) में ड्यूटी थी उसकी साथ में छ: सिपाही भी थे , हर बोगी को चेक कर रही थी तभी फर्स्ट क्लास के केबिन से चिल्लाने की आवाज़ सुनी उसने , खटखटाने पर दरवाज़ा नही खुला चिल्ला कर बोली मैं ‘ मैं रेलवे पुलिस जो भी है दरवाज़ा खोल दो बच तो नही सकते ‘ ये सुन दरवाज़ा खुला तो देखा नीचे खिड़की से चिपक कर एक आदमी औरत बैठे थे औरत रोये जा रही थी , हाथ में चाकू पर्स और पांच साल के बच्चे को पकड़े एक शख्स खड़ा था मुझे चाकू दिखा कर बोला ‘ हटो जाने दो मुझे ‘ मेरे हाथ में पिस्तौल देख कर भी नही डरा उसे पता था बच्चे के चलते मैं कुछ नही कर सकती । मैने रास्ता दे दिया वो ट्रेन का दरवाज़ा खोल कर खड़ा हो गया मुझे बच्चे को बचाना था , मेरी आखों का इशारा कांस्टेबल समझ गया था बिजली की तेजी के साथ मैने बच्चे को उसके हाथ से खिंच कांस्टेबल की तरफ फेंका बच्चा कांस्टेबल के हाथ में , खुद को घिरा देख उसने एक ही झटके में मेरा हाथ पकड़ मुझे ट्रेन के बाहर फेंक दिया । आँख खुलने पर अस्पताल में पड़ी थी हादसा भयंकर था लेकिन मैं उपर वाले की मर्जी से बच गई थी किंतु पैरो ने चलने से मना कर दिया था । पर मैने और डाक्टरों ने हार नही मानी पूरे एक साल इलाज चला भयंकर दर्द से गुज़री मैं और आज सुबह जब वीरता पुरस्कार के लिए अख़बार में अपना नाम पढ़ा तो लगा जैसे मेरे पैरों में फिर से ताक़त आ गई , काँपते पैरों को व्हील चेयर से उतार ओस से भीगी घास पर रखा तो शरीर पसीने से नहा गया लेकिन इतने लंबे समय के बाद इस हौसले के एहसास के लिए ओस की एक बूंद ही काफी थी ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 06/02/2021 )