हो हक़ में फैसला मेरे कोई उमीद नहीं
ग़ज़ल
हो हक़ में फैसला मेरे कोई उमीद नहीं।
कोई गवाह भी तो पास चश्म-दीद नहीं।।
ये दाम इतने मिले जितने की ख़रीद नहीं।।
कि कारोबार बचा भी तो अब मुफ़ीद नहीं ।।
फिर अब चुकाना पड़ेगा ये कर्ज़ लगता है।
चुका दिया था मगर कोई तो रसीद नहीं।।
बने हुए हैं सभी पीर इस ज़माने में।
यहां किसी का कोई अब रहा मुरीद नहीं।।
मैं कर ही लेता हूँ दीदार अब तसव्वुर में।
तो क्या हुआ भी अगर होती उनकी दीद नहीं।।
फुहार प्यार की पड़ती कभी कभार यहां ।
ये बारिशें भी तो होती है अब शदीद नहीं।।
गले लगा न सकेंगे “अनीस” हम तुमको।
तो यानी अब के मनेगा भी जश्न ए ईद नहीं।।
– अनीस शाह “अनीस”