हो रहा है
गीतिका
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छलावा भी उसे ही हो रहा है
भरोसे भाग्य के जो सो रहा है
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बहुत उम्मीद थी जिससे लगाई
क्यों जाता दूर मुझसे वो रहा है
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सभी दुख सह चुका है दिल जहाँ के
कहाँ कुछ और सहने को रहा है
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कभी विश्वास के काबिल नहीं वो
बदलता बात अपनी जो रहा है
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उसी के पाँव में कंटक चुभे हैं
सदा जो अन्य के पथ बो रहा है
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बदलते दौर में हर आदमी पर
बढ़ा है बोझ जिसको ढो रहा है
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य