हो जाए ना बत्ती गुल!
ये ऐसा कैसा समय है आया,
हो रही है जब बत्ती गुल,
घर पर ऐसे ठिठके हैं,
जैसे हम हों बिल्कुल नाकुल (ना काबिल)!
कभी बिना काम के भी निकल पड़ते थे,
अपनी हस्ती में होकर मसगुल,
अब काम भी खड़े हैं सामने,
पर निकल नहीं पा रहे हैं बिल्कुल!
दुःख सुख से नहीं रहा कोई वास्ता,
ऐसे जैसे रहे हों अपने प्रतिकूल,
ऐसा कैसा ये समय आया है,
जब हो रही अपनी बत्ती गुल!
ना हम सीखे ओन लाइन डिमांड की,
ना पाया इसे कभी अपने अनुकूल,
क्या खाएं, कहां से लाएं,
कैसे करके जान बचाएं,
आने जाने में हो रही टाल-मटोल!
हमने तो सिखा था जाकर परखना,
टटोल मटोल कर जांच कर चखना,
भाव ताव कर सामान खरीदना,
ठीक ना निकला तो वापस करने को कहना!
अब ऐसे ठिठके हुए हैं घरों में,
हर वस्तु का कम से कम उपयोग करने में,
डर है जल्दी खत्म ना हो जाए,
खत्म हुआ तो फिर कौन लेकर आए!
बस इसी दुविधा में पड़ हो रहे हैं दुबले,
किस विधि से यह दौर तो निकले,
रहा बना यदि यही माहौल,
तो व्यवस्था का उठेगा मखौल!
जिस दिन निकल पड़ेंगे लोग,
दर किनार कर के यह रोग,
रोग से तो जब मरेंगे तब मरेंगे,
भुख प्यास से पहले मरेंगे!
नहीं स्थाई यह समाधान है,
लौकडाउन हर तरह का ब्यवधान है,
यह जानते समझते ना करें भूल,
होने लगी है अब बत्ती गुल!
माना कि जान है तो जहान है,
लेकिन बिना जहान के भी तो नहीं जान है,
जानते हैं धैर्य की भी एक कीमत होती है,
पर वह कीमत भी अब असहज हो गई है,
काम धाम सब विरान पड़े हैं,
हम सब घरों पर ही अड़े पड़े हैं!
आज की चिंता में कल को नकार दें,
आने वाले कल को कैसे बिसार दें,
अब तो ना ढील करो कुछ ऐसी,
वैक्सीन पौलिसी पर कर दी है जैसी,
अब भी जानते बुझते ना करें और भुल,
वर्ना हो जाए ना अबके, सब की बत्ती गुल!!