होश संभालता अकेला प्राण
होश संभालता अकेला प्राण
जब मिलता है सांसों की श्रृंखला से
बुनता है विशाल परिधि के मध्य स्वयं में एक क्रम
रचता है जीवन-मित्र-प्रांगन-आंगन
मन कहता वरण
प्रकृति से अपने हिस्से की भेंट लिए
करता है सपनो का सत्य से श्रृंगार
हाँ पर सारथी कौन
साथ
हर मोड़ को गंतव्य से मिलाता संयोग की ज्योति बन
“साथ”
©️ दामिनी नारायण सिंह