होली और रंग
होली में रंगों का उजास
एक उजास जो मिलता है सिर्फ फागुन में
न है वो वर्ष के किसी कालखंड में
भले ही बौराया इतराया गद राया मौसम कोई भी हो
सूने मन पर रंगों का उजाला पड़ता है।
रंगों के रूप में वो भी जब फागुन बन कर छाया हो जग में
मैंने सारी परिधि को लांघकर
तुम्हे रंग से भिगोया था
भीगे तन मन से निकलते उजाले ने
दूर समतल मैदानों पर फैलते हुए
कोने पर खड़े एकाकी पेड़ तक विकीर्ण होते हुए मुझे छू कर
तुम्हारे रंग में सराबोर कर दिया था।
रंगों की इंद्रधनुषी आभा ने
तुम्हारे और मेरे तन पर लगे
पीले नीले रंग और प्रेम की हरितिमा में चमकते मन को
उन्मत किया फिर मै श्यामल से कब गौरा हुई ध्यान नहीं।
रंगों का उजाला कब बिना किसी
आहट के मेरे तुम्हारे करीब अा गया
फिर ना जाने चमक उठे यूं नयन कि उन्मिलित होकर भी उजास भरे रहे अन गिन क्षण तक।
सहसा ही कहां विलीन हुए
फागुन के अनूठे रंग और प्रकाश पुंज
पलटकर खूब खोजा था मैंने वो रंगों का उजास जो हमे होली में मिला था।
इस होली पर तलाशेंगे मेरे नयन
वही उजास जो अबकी फागुन में मिलेगा।