होलिका दहन
निस दिन खेली ,
घर आँगन में,
बचपन से गोदी में,
रंग-ग़ुलाल सी प्यारी बेटी,
बड़ी हुई तो नारी,
जन्म दात्रि बनती एक दिन,
सुत-सुता की देवी माँ,
सहती पीड़ा नारी ही सब,
प्रसव वेदना वह जाने,
कैसे बन गई होलिका माँ,
जल गई समाज में आज,
बुराई तो मिटी नहीं,
मिट गई नारी की आह !
दबा दी गई आवाज,
कैसी है परंपरा,
कैसी की जा रही मूर्खता,
बुराई मिटाई जाती ज्ञान से,
बाबा साहेब के शिक्षा के अधिकार से,
सम्मान मिला जो नारी को,
अपनाओ परंपरा प्यारी यह,
दहन करो बंद प्रतीको का,
आने न पाये हकीकत की बारी,
मार दी जाए बुराई की आड़ में फिर कोई नारी ।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।