होरी
होरी ….!
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अब तौ धर दै ढोल मृदंग, खेलियो परकै फिर होरी ।
परकै फिर होरी, खेलियो परकै फिर होरी ।।
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खूब भंग तैनै अबकै छानी,
बहुत करी अपनी मनमानी,
अब तौ सुध लै बाट जोह रही तेरी घर गोरी ।१
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खाई चोट दृगन की भारी,
खूब चलाई भर पिचकारी,
धर दै याय अटा पै अब मत करियो बरजोरी ।२
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गालन खूब गुलाल लगायौ,
लत्ता फारे मन हरषायौ,
अब तौ कर लै चेत घोरियो परकै फिर रोरी ।३
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परकै फिर होरी आवैगी,
रंग भंग चंदन लावैगी,
कब जानै सुन रसिया टूटै साँसन की डोरी ।४
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मिली पुण्य ते ब्रज की होरी,
श्यामा-श्याम हैं चंद्र-चकोरी,
‘ज्योति’ रँगी कान्हाँ के रँग में सतरंगी होरी ।५
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-महेश जैन ‘ज्योति’
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शब्दार्थ:
परकै-अगले वर्ष,
दृगन की-आँखों की,
लत्ता-कपड़े,