होरी मे मचाउ हुरदंग (हास्य कविता)
होरी मे मचाउ कनी हुरदंग
खुशी सँ जिनगी हुए रंग-बिरंग
“कारीगर” दैत अछि शुभकामना
खूम होरी खेलाउ दोस महीमक संग।
उज्जर मुहँ लाल-पीअर करू
खुशी मनाउ कनियो ने डरू
बुढ़बा बाबा मना करैथ त’
हुनका माथ पर रंग-बिरंग बैलून फोरू।
रस्ता पेरा रंगीन भ’ गेल
डंफा बजाउ फगुआ गाउ
अहाँ अपने मने झुमू
आई सभ मिली रंग घोरू।
मलपुआ खाउ अबीर उड़ाउ
आई केकरो नहि अहाँ छोड़ू
पिचकारी मे रंग भरि
ओकरा रंग-बिरंग क’ छोड़ू।
कि बुढ़-पुरान कि छौंड़ा मारेर
धियो पूताक मोन भेल रंगीन
अबीर उड़ाउ खुशी मनाउ
अंगने-अंगने होरी खूलाउ।
आई कियो नहि मना करत
सभ नाचै अपना ताले
डंफा डूगडूगाउ ढ़ोलक बजाउ
नाचू अहाँ अपना ताले।
होरी आबि गेल औ भाई
रंग घोरै मे जुनि पछुआउ
हरमोनियावला हे यौ पिपहीवला
आउ-आउ सभ मिली जोगीरा गाउ।
कक्का औ बेसी नहि छिड़िआउ
आई नहि मानब एक्को टा बात
बाल्टी मे अछि रंग घोरल
उज्जर मुह करब कारी सियाह।
हँसी खुशी सँ होरी खेलाउ
आ खा लियअ देसी भंग
जिनगी होएत रंग-बिरंग
होरी मे मचाउ कनी हुरदंग
कवि-© किशन कारीगर
आकाशवाणी दिल्ली