हॉर्न ज़रा धीरे बजा रे पगले ….देश अभी भी सोया है*
“हॉर्न ज़रा धीरे बजा रे पगले …. देश अभी भी सोया है …..”
( भ्रष्ट ) नेता हों या (मौक़ापरस्त) कथाकार हो या हों ख़बर नवीस
अलगाव के अलाव को और थोड़ा तेज़ कर
चमकते परदे के पीछे छुप कर,
सरल जनमानस को भरम के बोल से
शक की घी डाल दे –
करे दे ख़ाक , जला दे आत्मा उनकी
घर किस किस का जलता है , उससे क्या होता है,
परदे के पीछे आँच कहाँ जाती है ?
जयचंदों की तादाद बढ़ी है, सच को तोड़ – मरोड
बेच बेच कर झूठ को – सोना अपने घर में बोते है
अपने क्षय के भय से
वो सच लिखने या बोलने से भी कतराते हैं
बस अपने ग़ल्ले में सिक्कों की खनक और वज़न बढ़ाते हैं
उससे क्या होता है कि अपनों के मौत पर कोई रोया है
“तू तो हॉर्न ज़रा धीरे बजा रे पगले …. देश अभी भी सोया है …..”