सृजन तुम्हारी मुट्ठी में
श्रम सार्थक अधिकारी मैं, दाना है तुम्हारी मुट्ठी में|
दिन-रात अथक प्रयास मेरा, है सार तुम्हारी मुट्ठी में||
पल भर भला विश्राम कहाँ,
रुक जाए सृजन,
पवन रुकी इक पल अगर,
थम जाए जीवन |
चलना निरंतर काम मेरा, चाबी है तुम्हारी मुट्ठी में ||१||
सूरज करे आराम अगर,
सृष्टि अँधियायी,
चंदा गर न आए गगन,
हो काल तिमिराई|
घूमे धरणी अनवरत यहाँ, अँगड़ाई तुम्हारी मुट्ठी में ||२||
क्या पाया मैं और क्या खोया,
सब दिया तुम्हारा,
तुम माली बगिया जीवन है,
दुनिया का सहारा|
‘मयंक’ सूरज, सृष्टि, धरणी का, सृजन है तुम्हारी मुट्ठी में||३||
✍ के.आर.परमाल ‘मयंक’