है मुझ संग मेरी माँ सखी
जब दर्द बढ़ा दिल रोया था
आंखों ने नमक को खोया था
अधरों पे बस मुस्कान तनी रही
दर्द से रार मेरी भी खूब ठनी रही
वो कहती रही हंस कर मुझ को
दिल के देहरी से न जाउंगी
यहीं डेरा मैं जमाऊँगी,
आंखों के रस्ते ही तो मैं
गंगा जमुना में बाढ़ लाऊंगी
तेरे अस्तित्व को उस में डुबाऊँगी
हमने भी हंस कर कहा, सखी
तुम हो पानी तो मैं हूं धूप सखी
तुम उदासी में ही पलती हो
मैं मुस्कानों के गांव में जा बसी
मैं दर्द में भी तो इतराऊँगी
दर्द के जर्द सीने पे भी
ठहाकों के फूल उगाउंगी
है मुझ संग मेरी माँ सखी
जो दिल में मेरे है बसी सखी
जो खोने नही देती मेरी हंसी…
कहती है पगली तू कहां आन फसी
ये जो तेरे हिस्से दर्द के चोबारे आन लगे
मुझ से होकर ही गुजरी है
जो तेरे सीने में जा कर हैं धसी
बिटिया तू मेरी जाई है
दुख में तू मेरी परछाई है
इस में तो तू और निखर आई है
चल हाथ पकड़ बढ़ जा री सखी
दर्द को मुस्कानों से दे मात सखी
…सिद्धार्थ