है चुनाव आने वाला
है चुनाव आने वाला
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नेताओं का जत्था है अब
गांव-गांव आने वाला
देखो फिर से भाई शायद
है चुनाव आने वाला
गूँगे-बहरे बनकर अबतक
ये कुर्सी पर बैठे थे
अब आयेंगे हाथ जोड़ने
कल तक कितना ऐंठे थे
रुख में इनके गिरगिट जैसा
है स्वभाव आने वाला-
देखो फिर से भाई शायद
है चुनाव आने वाला
मिलने का भी समय न देकर
जिसने तुमको दुत्कारा
वही मनुज अब भीख मांगने
आ जाएगा दोबारा
भिखमंगों सा है मुख पर अब
हाव-भाव आने वाला-
देखो फिर से भाई शायद
है चुनाव आने वाला
जनता का तो समय कटेगा
पाँच साल यूँ ही रोकर
नेता हमें लड़ाएंगे बस
स्वार्थ हेतु अन्धे होकर
इनके कारन ही आपस में
है दुराव आने वाला-
देखो फिर से भाई शायद
है चुनाव आने वाला
– आकाश महेशपुरी
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नोट- यह रचना मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक “सब रोटी का खेल” जो मेरी किशोरावस्था में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है, से ली गयी है। यहाँ यह रचना मेरे द्वारा शिल्पगत त्रुटियों में यथासम्भव सुधार करने के उपरांत प्रस्तुत की जा रही है।