है कश्मकश – इधर भी – उधर भी
क़त्लेआम का सैलाब है
द़िमाग में ज़नून और
सब्र ज़मींदोज़ है
इधर भी – उधर भी
लहू के रंग मे
ज़हर सा है घुल गया
फैली फिज़ाँ में है दहशत
बहती है नसों में नफ़रत
इधर भी – उधर भी
श़क के हैं दरख़्त अब
रिश़्तों में इंसान के
शैतानों के ठहाके हैं
हिस्से में है ख़ौफ़
हर अवाम के
इधर भी – उधर भी
दरिंदगी ने मायने बदल दिये हैं
ख़ुशनुमा तेहवारों के
ख़ून से जलाते दिये
अब ख़ून की ही होती होली
और दर्द का ग़ुलाल है
इधर भी – उधर भी
जो बेचते हैं मौत
वो बख़्तरबंद में घूमते हैं
जाती हैं जानें उनकी
मयस्सर नहीं हैं छत जिनकों
यही मलाल है
इधर भी – उधर भी