हैं भण्डार भरे
हैं भण्डार भरे दाता के, होते कभी न खाली।
जिसने जितनी दौलत मांगी, उसने उतनी पा ली।।
प्रभु के पास प्रचुरता धन की, इच्छित धन मिल जाता।
देने वाला हर याचक का, सच्चा भाग्य-विधाता।।
जितना पाने की चाहत हो, उससे उतना पायें।
फिर परहित में उसको व्यय कर, जग में कीर्ति कमायें।।
देने वाला कृपण नहीं वह, सबकी झोली भरता।
जो उसके शरणागत उनके, सब सपने सच करता।।
कृपा कोर से न्यायालय में, करता जीत सुनिश्चित।
सबको उसका प्राप्य दिलाता, करता उर आनंदित।।
पैसा मिलता आसानी से, अक्सर मिलता रहता।
कितना पैसा तुम्हें चाहिए, देने वाला कहता।।
मांग मगर बाहरी न होती, यह भीतर से आती।
जब उर उपवन पुष्पित होता, सुरभि फैलती जाती।।
अब बोलो है भक्त कौन वह, किसे अपरिमित पाना?
कौन प्रेम करता है प्रभु से, है उसका दीवाना??
महेश चन्द्र त्रिपाठी