* हे सखी *
डा. अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* हे सखी *
मैं नर हुँ यदि नारी को सखी कह दूँ तो क्या होगा |
मैं नर हुँ यदि नारी को सखी कह दूँ तो क्या होगा |
क्या नारी की नारी ही हो सकती है मित्र जरा सोचो तो क्या होगा
इस शब्द का नाता यदि नारी से मात्र रहे तो कोई, अचरज ना होगा
मैं नर हुँ यदि नारी को सखी कह दूँ तो क्या होगा |
सोच सोच की बात है करना जरा विचार, इस अभिव्यक्ति पर
मन्थन मन से मुखरित दिल से मुक्त हृदय से तनि ध्यान देना
मैं नर हुँ यदि नारी को सखी कह दूँ तो क्या होगा |
क्या सम्मानित भाव से नारी नर की मित्र नही हो सकती है
क्या मन से हृदय से किसी पुरुष की आत्म द्रवित नही हो सकती है
क्या इस रिश्ते में किसी तरह एक विचार से देह अलग नहीं हो सकती है
मैं मात्र अगर नारी को इन्सानी मानव की संज्ञा दे दूँ तो क्या होगा
मैं नर हुँ यदि नारी को सखी कह दूँ तो क्या होगा |
सोच सोच की बात है करना जरा विचार, इस अभिव्यक्ति पर
मन्थन मन से मुखरित दिल से मुक्त हृदय से तनि ध्यान देना