हे विधाता शरण तेरी
लो विधाता खोल दी
मुट्ठी अब तेरे सामने ।
आ गए हैं पांव थककर
शरण तेरी थामने ।
हाथ में अब कुछ न मेरे
और शायद भाग्य में भी ।
इसलिए मुक्तक हैं फिसले
आये थे जो हाथ भी ।
मन बहुत विचलित प्रभु
वेदना ये अति घनी है ।
किससे बांटे पीर मन की
कोई भी संगी नहीं है ।
प्रभु करो पाषाण ये उर
सह सके आघात जो ।
शान्ति दो इतनी हृदय में
कोई न प्रतिकार हो ।
नयन से सब रंग लेकर
शुष्कता इनमें भरो ।
मन के सारे मोह छीनों
पुलक भी तन से हरो ।
समाधि का आलम्ब दो
जो आधि व्याधि मुक्त हो ।
अब रहूं निर्लिप्त जग से
मन ये शिव संयुक्त हो ।