हे माॅ वीणावादिनी
हे माॅ वीणावादनी कुछ ऐसा जतन कर दो।
मुझे एक सफल उद्यमी का वर दो।।
मेरी लेखनी तेरे चरणों में झुकती रहे।
लालसा यही मेरी क्रपा तेरी बरसती रहे।।
ज्ञान का दीप जला अज्ञान दूर कर दो माॅ।
हे माॅ वीणावादनी——————-
मैं कुछ ऐसा करता रहूं ।
निर्झर नीर सा बहता रहूं।।
बूंद बूंद से सागर को गागर में भरता रहूं।
मेरा ललाट सागर है सूखा माॅ इसमें सागर सी मसी भर दो।
हे माॅ वीणावादिनी ———————
रचयिता – इंद्रजीत सिंह लोधी