हे पुरुष
हे पुरूष ,
स्त्री बाँधती है
बँधती है तो सिर्फ
प्रेम पाश में,
पिघलती है मोम की तरह ,
प्रकाश फैलाने को चुपचाप ,,
जलती है शमा बन
रात भर ले एक प्यास,
प्यार और सम्मान की।
पर नहीं
तुम नहीं समझ सकते उसे,
तुम शिव नहीं
गर शक्ति को नही जानते,
तुम कृष्ण नहीं अगर
मीरा और राधा को नही समझते,
तुम राम नहीं
अगर अपनी मर्यादा में नहीं रह सकते,
तो हे जीव ,,
तुम पुरूष ही नहीं,
गर स्त्री को नहीं मान देते ।
तुम पुरूष ही नहीं,
गर स्त्री को सम्मान नहीं देते।
इन्दु