हे पुरुष मानसिकता बदल लो
हे पुरुष मेरी तुझसे हाथ जोड़ कर इतनी सी विनती है।
मानसिकता बदल ले तू अगर तेरी देवताओं में गिनती है।
मेरी ही कोख से तूने जन्म लिया।
मेरी ही छाती का तूने दूध पिया।
मेरे राखी के धागे को कलाई पर बँधवा कर
तूने मेरी रक्षा करने का वचन दिया।
मुझ संग सात फेरे लेकर अपना घर आबाद किया।
फिर भी तुझे नारी उपभोग की वस्तू क्यों दिखती है?
कोई तुम्हारे घर की नारी को तंग करता है।
आते जाते रास्ते में उन्हें देख आहें भरता है।
उनसे बात करने के लिए, उन्हें अपने झूठे
प्रेम जाल में फंसाने के लिए घूमता है।
जब उन पर कोई अश्लील फब्तियाँ कसता है।
उस समय ही तेरी आत्मा क्यों चीखती है?
जब दुसरे घर की नारी छेड़ी जाती है।
तुम को कमी उस नारी में ही नजर आती है।
फिर तुम कहते हो कि संभल कर नहीं चलती,
मोबाइल रखती है, खुद ही बचना नहीं चाहती है।
ढंग से कपड़े न पहनकर शरीर को दिखाती है।
दोष होता है तुम्हारा, आजादी मेरी क्यों छिनती है?
मेरे रास्ते बदलने से क्या समस्या खत्म हो जाएगी।
क्या दुसरे रास्ते वालों की नियत खराब नहीं पाएगी।
सब कुछ मैं ही करूँ, मैं ही बदलूं अपने आपको,
तुम्हें तुम्हारी घटिया सोच बदलने में शर्म आएगी।
झूठ नहीं तुम्हारी लगाई आग तुम को ही जलाएगी।
भूल गये तुम से ही तुम्हारी आने वाली पीढ़ी सीखती है।
बुर्के में जो होती है वो तो अंग प्रदर्शन नहीं करती।
एक पांच सात साल की बच्ची मोबाइल नहीं रखती।
फिर भी उनका बलात्कार कर देते हो तुम पुरुष,
उनकी पुकार नहीं सुनाई देती जो चिल्लाती है डरती।
सोच बदल कर देखो स्वर्ग से सुंदर बन जाएगी धरती।
विचार करना हे पुरुष “”सुलक्षणा”” सच ही लिखती है।