हे नर
गीत – हे नर
दुख दाह रहा भीगे मन को
तन के सारे कण -कण को
हो रही खत्म अब बाती भी
रोकेगा कौन अँधेरेपन को
मिट कर भी तुम्हे उपजना होगा
हे नर अब तुम्हे समझना होगा
चिंता की हर ओर चिताएं हैं
दुःख हैं और विपदाएं हैं
है कौन कहाँ जग में अपना?
अपनापन महज कथाएं हैं
जीवन की गुत्थी में उलझकर
निरंतर तुम्हे सुलझना होगा
मिट कर भी तुम्हे उपजना होगा
हे नर अब तुम्हे समझना होगा
द्वन्द सदा खुदसे करना अब
खुद के खातिर जीना मरना अब
गर पंख गलत उड़ान को भागें
अपने हो पंख कुतरना अब
हौसले ज़ब बुलंद रहेंगे तेरे
कटे पर को फिर से उगना होगा
मिट कर भी तुम्हे उपजना होगा
हे नर अब तुम्हे समझना होगा
सबसे पहले उपहास बनेगा
फिर वक्त तुम्हारा दास बनेगा
ज़ब कर्म अनूठे कर दोगे फिर
तुमसे नव विश्वास बनेगा
नव कीर्तिमान के एकल रस्ते पर
धीरे -धीरे पग धरना होगा
मिट कर भी तुम्हे उपजना होगा
हे नर अब तुम्हे समझना होगा
-सिद्धार्थ गोरखपुरी