हे देवताओं
हे देवताओं
कभी किसी रात क्यूं नहीं उचटती तुम्हारी नींद
जब भूख से बिलखते बच्चे
अपनी माॅंओं के सुखी छाती में ढूंढ़ते हैं दूध
जिव्हा के सतह पर जीवन रस के माधुर्य को
न उतरते देख जब होते हैं विह्वल
करते हैं अंतर्नाद
जिन्हें सुन लेता है,
गलियों में घूमता आवारा कुत्ता
और गर्दन को आसमान के दिशा में मोड़
भूकने लगता है भौ … भौ
अंधेरी गलियों की खाशोशी
के टुकड़े हो जाते हैं सौ … सौ
उच्ट जाती है गहरी नींद में सोए मनुष्यों की नींद
तो क्या तुम मनुष्यों से भी गए बीते हो ???
तब तुम किसी के लिए किस विधि
दैव सरीखे हो …
~ सिद्धार्थ