हे तात ! कहा तुम चले गए…
हे तात ! कहा तुम चले गए…
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हे तात ! कहा तुम चले गए…
दर्शन न कोई मुलाकात, जहांँ तुम चले गए..।
संग तेरे जो बीता था बचपन ,
अब भी कुछ-कुछ याद हैं मुझको,
कंधे पर जो बैठ झूमता,
सुनाता मन की फरियाद था तुझको।
हाथ पकड़ कर जब सुबह टहलता,
करता जिद फिर अपने मन को ।
झूठ मूठ के आँसू लाकर ,
यूँ ही घबराता तेरे दिल को।
अब कर के क्या पश्चात्ताप, जहांँ तुम चले गए..।
हे तात ! कहा तुम चले गए…
आपस में हम सब जो झगड़ते ,
बिना मतलब ही रगड़ा करते ।
आते तुम फिर हमें समझाते ,
गिले शिकवे सब दूर कराते।
कभी-कभी जो गुस्सा करते,
खामोश निगाहों से हम डरते।
अन्तर्मन से भले ही रो लेते ,
होठों पर सदा मुस्कान ही रखते।
देकर सबल संताप, कहा तुम चले गए…!
हे तात ! कहा तुम चले गए…
अपरिमित व्योम सा प्यार था तेरा ,
कर्मपथ भी विचलित न हुआ था।
मुश्किलें जो आती आँधी जैसी ,
उसमें भी हरगिज न डिगा था।
पूरे हो हर ख्वाब,एक दिन तो ,
इसी उम्मीद में दिवस गुजरता।
जेब कभी खाली पड़ जाए ,
हौसला फिर भी कम न होता।
देकर खुशियों भरी सौगात,कहा तुम चले गए…।
हे तात ! कहा तुम चले गए…
मुझे याद है अब भी वो रात ,
साँसें अटकी थी उस रात ,
देखा था आँसू पहली बार ,
जब बेचैन हुए जज्बात .
वो पल था कैसा घात ,
करके इशारों में आखिरी बात।
कहा तुम चले गए…
करके अश्कों की बरसात,कहा तुम चले गए।
हे तात ! कहा तुम चले गए…
मौलिक एवं स्वरचित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २१ /०४ /२०२२