हे जीवन पथ के पंथी
हे जीवन पथ के पंथी तू जा कहाँ रहा है
यह पथ जरा कठिन है चलना जरा संभल के
इस मार्ग में है रोड़े ,कांटों की चुभन है
क्या सहन कर सकेगा तू अपने कोमल तन में
मन तेरा नासमझ है क्या इसको समझा लेगा
भटके ना यह डगर से चलना जरा संभल के।
छोड़ी जो तूने राहे डगमगा गया कदम जो
मुश्किल है फिर तो चलना पथ पर जो आगे बढ़ना
तू है बड़ा बहादुर पथ को जो तू समझ ले
चलते ही जाना तुझको जीवन का ध्येय यही है।
क्या लड़ सकेगा तू शत्रु से मन के बल से
ढलानों की है राहे, चलना जरा संभल के।।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’