हे कृष्ण
हे व्यक्त अव्यक्त सर्वव्यापी कृष्ण।
बन उद्धारक करो वेदना का शमन।
जल बिन मछली जैसे तड़पे यह मन,
कैसे पाऊं तुम्हें बिखरा जग -दर्पण?
पूजा न जानूं ना ही सेवा -अर्चन,
निश्चल भावों का बस तुम्हें समर्पण।
जग -मरू में मैंने सही तीव्र तपन,
बीते धीरे-धीरे जीवन क्षण-क्षण।
तुम जो भी जैसे भी हो तुम्हें नमन
लगा दो प्राणों पर करुणा- चंदन।
इक आस लिए बैठा है साधक मन
साकार रूप में कब दोगे दर्शन?
माना मैं पापी हूॅं और अकिंचन
तुम दुष्टों के उद्धारक करूणायतन।
मुझे अपना सार्थक कर दो येअर्पण,
मिट जाए मन की ज्वालामयी जलन।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)